कंकाल-अध्याय -७
'नहीं-नहीं, इसकी चिंता न कीजिये। हम लोग तो परदेशी हैं। यहाँ घूम रहे थे, तब इनकी मनमोहिनी छवि दिखाई पड़ी; चले आये।' वीरेन्द्र ने कहा। अम्मा ने भीतर की ओर पुकारते हुए कहा, 'अरे इलायची ले आ, क्या कर रहा है?' 'अभी आया।' कहता हुआ एक मुसलमान युवक चाँदी की थाली में पान-इलायची ले आया। वीरेन्द्र ने इलायची ले ली और उसमें दो रुपये रख दिये। फिर मंगलदेव की ओर देखकर कहा, 'चलो भाई, गाड़ी का भी समय देखना होगा, फिर कभी आया जायेगा। प्रतिज्ञा भी पाँच मिनट की है।' 'अभी बैठिये भी, क्या आये और क्या चले।' फिर सक्रोध गुलेनार को देखती हुई अम्मा कहने लगी, 'क्या कोई बैठे और क्यों आये! तुम्हें तो कुछ बोलना ही नहीं है और न कुछ हँसी-खुशी की बातें ही करनी हैं, कोई क्यों ठहरे अम्मा की त्योरियाँ बहुत ही चढ़ गयी थीं। गुलेनार सिर झुकाये चुप थी। मंगलदेव जो अब तक चुप था, बोला, 'मालूम होता है, आप दोनों में बनती बहुत कम है; इसका क्या कारण है?' गुलेनार कुछ बोलना ही चाहती थी कि अम्मा बीच में बोल उठी, 'अपने-अपने भाग होते हैं बाबू साहब, एक ही बेटी, इतने दुलार से पाला-पोसा, फिर भी न जाने क्यों रूठी रहती है।' कहती हुई बुड्ढी के दो आँसू भी निकल पड़े। गुलेनार की वाक्शक्ति जैसे बन्दी होकर तड़फड़ा रही थी। मंगलदेव ने कुछ-कुछ समझा। कुछ उसे सन्देह हुआ। परन्तु वह सम्भलकर बोला, 'सब आप ही ठीक हो जाएगा, अभी अल्हड़पन है।' 'अच्छा फिर आऊँगा।' वीरेन्द्र और मंगलदेव उठे, सीढी की ओर चले। गुलेनार ने झुककर सलाम किया; परन्तु उसकी आँखें पलकों का पल्ला पसारकर करुणा की भीख माँग रही थीं। मंगलदेव ने-चरित्रवान मंगलदेव ने-जाने क्यो एक रहस्यपूर्ण संकेत किया। गुलेनार हँस पड़ी, दोनों नीचे उतर गये। 'मंगल! तुमने तो बड़े लम्बे हाथ-पैर निकाले-कहाँ तो आते ही न थे, कहाँ ये हरकतें!' वीरेन्द्र ने कहा। 'वीरेन्द्र! तुम मुझे जानते हो; परन्तु मैं सचमुच यहँा आकर फँस गया। यही तो आश्चर्य की बात है।' 'आश्चर्य काहे का, यही तो काजल की कोठरी है।' 'हुआ करे, चलो ब्यालू करके सो रहें। सवेरे की ट्रेन पकड़नी होगी।'' 'नहीं वीरेन्द्र! मैंने तो कैर्निंग कॉलेज में नाम लिखा लेने का निश्चय-सा कर लिया है, कल मैं नहीं चल सकता।'' मंगल ने गंभीरता से कहा। 'वीरेन्द्र जैसे आश्चर्यचकित हो गया। उसने कहा, 'मंगल, तुम्हारा इसमें कोई गूढ़ उद्देश्य होगा। मुझे तुम्हारे ऊपर इतना विश्वास है कि मैं कभी स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि तुम्हारा पद-स्खलन होगा; परन्तु फिर भी मैं कम्पित हो रहा हूँ।' सिर नीचा किये मंगल ने कहा, 'और मैं तुम्हारे विश्वास की परीक्षा करूँगा। तुम तो बचकर निकल आये; परन्तु गुलेनार को बचाना होगा। वीरेन्द्र मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि यही वह बालिका है, जिसके सम्बन्ध में मैं ग्रहण के दिनों में तुमसे कहता था कि मेरे देखते ही एक बालिका कुटनी के चंगुल में फँस गयी और मैं कुछ न कर सका।' 'ऐसी बहुत सी अभागिन इस देश में हैं। फिर कहाँ-कहाँ तुम देखोगे?' 'जहाँ-जहाँ देख सकूँगा।' 'सावधान!' मंगल चुप रहा। वीरेन्द्र जानता था कि मंगल बड़ा हठी है, यदि इस समय मैं इस घटना को बहुत प्रधानता न दूँ, तो सम्भव है कि वह इस कार्य से विरक्त हो जाये, अन्यथा मंगल अवश्य वही करेगा, जिससे वह रोका जाए; अतएव वह चुप रहा। सामने ताँगा दिखाई दिया। उस पर दोनों बैठ गये। दूसरे दिन सबको गाड़ी पर बैठाकर अपने एक आवश्यक कार्य का बहाना कर मंगल स्वयं लखनऊ रह गया। कैनिंग कॉलेज के छात्रों को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मंगल वहीं पढ़ेगा। उसके लिए स्थान का भी प्रबन्ध हो गया। मंगल वहीं रहने लगा। दो दिन बाद मंगल अमीनाबाद की ओर गया। वह पार्क की हरियाली में घूम रहा था। उसे अम्मा दिखाई पड़ी और वही पहले बोली, 'बाबू साहब, आप तो फिर नहीं आये।' मंगल दुविधा में पड़ गया। उसकी इच्छा हुई कि कुछ उत्तर न दे। फिर सोचा-अरे मंगल, तू तो इसीलिए यहाँ रह गया है! उसने कहाँ, 'हाँ-हाँ, कुछ काम में फँस गया था, आज मैं अवश्य आता; पर क्या करूँ मेरे एक मित्र साथ में हैं। वह मेरा आना-जाना नहीं जानते। यदि वे चले गये, तो आज ही आऊँगा, नहीं तो फिर किसी दिन।' 'नहीं-नहीं, आपको गुलेनार की कसम, चलिए वह तो उसी दिन से बड़ी उदास रहती है।' 'आप मेरे साथ चलिये, फिर जब आइयेगा, तो उनसे कह दीजियेगा-मैं तो तुम्हीं को ढूँढ़ता रहा, इसलिए इतनी देर हुई, और तब तक तो दो बातें करके चले आएँगे।' 'कर्तव्यनिष्ठ मंगल ने विचार किया-ठीक तो है। उसने कहा, 'अच्छी बात है।' मंगल गुलेनार की अम्मा के पीछे-पीछे चला। गुलेनार बैठी हुई पान लगा रही थी। मंगलदेव को देखते ही मुस्कराई; जब उसके पीछे अम्मा की मूर्ति दिखलाई पड़ी, वह जैसे भयभीत हो गयी। अम्मी ने कहा, 'बाबू साहब बहुत कहने-सुनने से आये हैं, इनसे बातें करो। मैं मीर साहब से मिलकर आती हूँ, देखूँ, क्यों बुलाया है?' गुलेनार ने कहा, 'कब तक आओगी?' 'आधे घण्टे में।' कहती अम्मा सीढ़ियाँ उतरने लगी। गुलेनार ने सिर नीचे किये हुए पूछा, 'आपके लिए पान बाजार से मँगवाना होगा न?' मंगल ने कहा, 'उसकी आवश्यकता नहीं, मैं तो केवल अपना कुतूहल मिटाने आया हूँ-क्या सचमुच तुम वही हो, जिसे मैंने ग्रहण की रात काशी में देखा था?' 'जब आपको केवल पूछना ही है तो मैं क्यो बताऊँ जब आप जान जायेंगे कि मैं वही हूँ, तो फिर आपको आने की आवश्यकता ही न रह जायेगी।' मंगल ने सोचा, संसार कितनी शीघ्रता से मनुष्य को चतुर बना देता है। 'अब तो पूछने का काम ही नहीं है।' 'क्यों?' 'आवश्यकता ने सब परदा खोल दिया, तुम मुसलमानी कदापि नहीं हो।' 'परन्तु मैं मुसलमानी हूँ।' 'हाँ, यही तो एक भयानक बात है।' 'और यदि न होऊँ 'तब की बात तो दूसरी है।' 'अच्छा तो मैं वहीं हूँ, जिसका आपको भ्रम है।' 'तुम किस प्रकार यहाँ आ गयी हो 'वह बड़ी कथा है।' यह कहकर गुलेनार ने लम्बी साँस ली, उसकी आँखें आँसू से भर गयीं। 'क्या मैं सुन सकता हूँ 'क्यों नहीं, पर सुनकर क्या कीजियेगा। अब इतना ही समझ लीजिये कि मैं एक मुसलमानी वेश्या हूँ।' 'नहीं गुलेनार, तुम्हारा नाम क्या है, सच-सच बताओ।'
Mohammed urooj khan
13-Dec-2023 01:59 PM
👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾
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Milind salve
13-Dec-2023 10:36 AM
V nice
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